शाहिद कपूर की नवीनतम फिल्म 'देवा' का गहन विश्लेषण
शाहिद कपूर की नई फिल्म 'देवा' ने दर्शकों में बड़ी उम्मीदें जगाई थीं। फिल्म के निर्देशक, रोशन एंड्रयूस, एक रोमांचक पुलिस थ्रिलर की कहानी कहने की कल्पना के साथ आए, लेकिन कई दर्शकों के सपना धूमिल हो गए, जब उन्हें फिल्म देखने का मौका मिला। शाहिद कपूर के असाधारण अभिनय के बावजूद, फिल्म की ढीली लेखनी ने इसे कमजोर बना दिया। फिल्म 'देवा' की कहानी देवा अंब्रे की रोमांचक यात्रा के इर्द-गिर्द बुनती है, जो एक खतरनाक गैंगस्टर का मारा जाने के बाद प्रसिद्ध होता है। हालांकि, उसकी याददाश्त खो जाने के बाद, वह न्याय की खोज में निकल पड़ता है। यह एक व्यक्तिगत और पेशेवर संघर्ष की कहानी है, जिसमें अनेक परतें हैं, जो धीरे-धीरे खुलती हैं।
फिल्म की शुरुआत उत्साहित करती है, और पहले का हाफ दर्शकों को अपनी गिरफ्त में रखता है। देवा का चरित्र, जिसकी पहचान एक कठोर और तेढ़े-मेढे पुलिस अधिकारी के रूप में होती है, बहुत खूबसूरती से गढ़ा गया है। कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे पुलिस की भागीदारी और उनके तौर-तरीकों की गहरी परतें खुलती जाती हैं। यह देखने योग्य बनता है कि कैसे एक सामान्य पुलिस जांच को इतनी उत्तरोत्तर गति मिलती है। शाहिद कपूर ने अपने आक्रामक और जुझारू अभिनय से दर्शकों को चकित किया।
फिल्म की कमजोरियां और खामियाँ
लेकिन, फिल्म का दूसरा हाफ पूरी तरह से उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाता। कहानी एक उलझन भरे मोड़ पर पहुँच जाती है, और फिर चाहे जितना भी प्रयास किया जाए, वह अपने दम पर खुद को खड़ा नहीं कर पाती। इसे देखें अगर आप शाहिद कपूर के प्रशंसक हैं और कुछ नया देखना चाहते हैं। मुख्यतः, यह अन्य प्रकार की बॉलीवुड फिल्मों के पारंपरिक तरीकों से भिन्न होना चाहिए था, लेकिन अंततः फिल्म ऐसा नहीं कर सकी।
फिल्म के कई संवाद पूर्वानुमानित हैं और अंत में निराशाजनक साबित होते हैं। संवाद में गहराई की कमी है और अक्सर यह लगता है कि यह कहीं देखे सुने जाते रहे हैं। इस नीरसता के कारण चारित्रिक विकास में कमी हो जाती है और किसी भी प्रमुख चरित्र के लिए स्पष्ट दिशा का अभाव होता है।
समाज के असली मुद्दों पर प्रकाश
फिल्म की एक महत्वपूर्ण ताकत यह है कि यह पुलिस की क्रूरता और उपयोगिता को उजागर करती है। यह मौजूदा समय में एक संवेदनशील विषय पर प्रकाश डालता है और इसे सटीकता से पेश करता है। इसे दर्शकों के बीच सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलती है, क्योंकि यह सत्यता की एक सटीक तस्वीर पेश करती है। इसके विपरीत, फिल्म उन नियमों और रूढ़िवादों से लड़ने का साहस करती है, जिनमें पुलिस की हिंसात्मक गतिविधियों को महिमामंडित किया गया है।
लेकिन एक बार फिर, फिल्म ट्रोप्स पर बहुत अधिक निर्भर करती है और ऐसे अनोखे ट्विस्ट या दर्शनीय नयापन नहीं दिखा सकी, जिसे दर्शक लंबे समय तक याद रखें। कहानी के विकास के लिए सहायक पात्रों का सही चिट्ठा करना आवश्यक था, जिनमें पूजा हेगड़े और कुब्रा सैत को उचित महत्व और जिम्मेदारी मिलनी चाहिए थी।
निष्कर्ष
अंततः, 'देवा' एक साधारण और याद न रखे जाने वाली फिल्म बनकर रह जाती है, जो अपनी लेखनी के ढीले धागों के कारण अपनी संभावनाओं को पूरा नहीं कर सकी। यह एक चुनौतीपूर्ण थीम को प्रस्तुत करती है, लेकिन उसके साथ न्याय नहीं कर पाती। जबकि शाहिद कपूर का प्रदर्शन सराहनीय है, बाकी फिल्म का काम उसे पूरा समर्थन देने में अक्षम लगता है।
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